तो क्या 2023 में फिर से बघेल होंगे छत्तीसगढ़ के भूपेश? या भाजपा खिलाएगी कमल!
रायपुर – लोकतंत्र की धुरी निर्वाचन प्रक्रिया से मजबूत दिखती है। जिसका निर्वाचन तगड़ा वह राजनैतिक पार्टी तगड़ी। छत्तीसगढ़ में कुल 90 विधानसभा सीटें हैं जिनमे मौजूदा 68 कांग्रेस के हाथ मे हैं। 90 विधानसभा सीटों में लगभग 44 सीटें आरक्षित हैं। अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति के लोग राज्य की आबादी के लगभग 50 फीसदी बूथों पर मजबूत व निर्णायक माने जाते हैं। लेकिन चुनाव के समय ही इनका त्योहार व मनौवल स्कीमें चलती हैं। महानदी का बेसिन क्षेत्र व बस्तर आदिवासियों का गढ़ माना जाता है। जिस पार्टी ने इन पर अपना अधिकार जता पाई वही विजेता घोषित होती है। इसीलिए अविभाजित मध्यप्रदेश के समय से आदिवासी नेतृत्ववाले चेहरों को ही राजनीतिक फायदा मिलता रहा।
छत्तीसगढ़ के अस्तित्व में आने के बाद बतौर आदिवासी चेहरा अजित जोगी को प्रदेश का प्रथम मुख्यमंत्री बनने का गौरव हासिल हुआ,बतौर आदिवासी। लेकिन बाद में असलियत का पर्दाफाश हुआ और जातिगत तुस्टीकरण में जनमत कम होता गया। रमन सिंह जब मुख्यमंत्री निर्वाचित हुए तब चेहरा कमजोर था,लेकिन बाद में इन क्षेत्रों में आदिवासियों का मन उनके व्यक्तित्व पर फिरा और लगातार तीन पंचवर्षीय मुख्यमंत्री रहे। बावजूद इसके बस्तर और महानदी क्षेत्रों के साथ ही अन्य आदिवासी बाहुल्य विधानसभाओं में उदासीनता के चलते विश्वासमत हासिल न कर पाने की स्थिति में सत्ता से बाहर होना पड़ा। कांग्रेस लगातार अपनी पकड़ छत्तीसगढ़िया अस्मिता की लड़ाई को लेकर मजबूत करती रही और आज सत्ता पर काबिज है। अब चुनाव 2023 में होने हैं,राजनैतिक पार्टियां बदलाव का समीकरण फिट करने में लगी हैं। ऐसे में सवाल यह सामने आता है कि क्या छत्तीसगढ़ का सियासी मैदान आगामी विधानसभा चुनाव में भाजपा ले पाएगी या कांग्रेस फिर से बैटिंग करेगी। आइये एक नजर राज्य की राजनीतिक गलियारों में डालते हैं..
राज्य में बदलती तश्वीर पर भूपेश की विश्वसनीयता या भाजपा के मोदी का आदिवासियों पर चलेगा जादू – दरअसल,राजनीति में वादों की फेहरिस्त काफी दिलचस्प रहती है। छत्तीसगढ़ धान का कटोरा कहा जाता है,मतलब किसानों की भूमिका निर्णायक है। किसानी यहां की मूल व्यवस्था है। और आदिवासी संस्कृति यहाँ की पहचान। इसका मतलब यह है कि किसान और आदिवासी का विश्वास जो जीता वही सिकन्दर. कांग्रेस की राजनीति समीकरण गांवों के गरीबों व आदिवासियों को लेकर लोक लुभावन समीकरण में फिट है जो छत्तीसगढ़िया सबले बढ़िया की तर्ज पर कसी गई है। जिसको भुनाने में राज्य के मौजूदा मुखिया भूपेश बघेल काफी चुस्त दुरुस्त समझे जाते हैं। भूपेश ने बड़ी ही चालाकी व सूझबूझ से राजनीति को परखा और बदलाव की बयार को अपने पक्ष में कर लिया। भाजपा गुटबाजी में और मोदी जी के फायरब्रांड की अतिउत्साहत में पिच से आउट हो गई। अब भी कमोवेश वही स्थिति समझ मे आ रही है। भूपेश जमीन से जुड़कर अपनी साख छत्तीसगढ़ में मज़बूत किये हैं। तो वहीं,भाजपा नेताओं के नेतृत्व बदलने में मशगूल है। चाहे वह साहू समाज के प्रबल चेहरे को प्रदेश अध्यक्ष की कमान देने की हो या फिर नेता प्रतिपक्ष बनाकर आदिवासी बाहुल्य क्षेत्रों को सियासी नजरिए से साधने की बात हो। बिलासपुर के सांसद अरुण साव को पार्टी का नया प्रदेश अध्यक्ष बनाकर बीजेपी ने साहू समाज को अपनी तरफ आकर्षित करने की कोशिश की और दूसरी तरफ चंदेल को नेताप्रतिपक्ष बनाये गए। ऐसे में क्या समीकरण वाकई आगामी चुनाव मे लाभप्रद होंगे यह तो समय ही बताएगा। रमन सिंह को राज्य से बाहर फेकने की चर्चा भी तेजी से गरमाई है। क्या रमन सिंह के बतौलत अब भाजपा कमजोर हुई। 15 सालों की सत्ता के बाद महज 15 सीटों पर काबिज भाजपा के लिए रमन सिंह को ही वजह मानी जा रही है। यदि,ऐसा है तो रमन सिंह वाली भाजपा को किनारे लगाने का दांव क्या छत्तीसगढ़ में कोई गुल खिला पाएगी? क्या छत्तीसगढ़ के मोदी बने भूपेश बघेल की लोकप्रियता के आगे भाजपा के नरेंद्र मोदी का जादू चल पाएगा?यह तमाम सवालों पर यदि नजर डालें तो पाएंगे कि अभी छत्तीसगढ़ के नायक भूपेश बघेल का जादू कायम है। नरवा,घुरवा,गरूवा और बाड़ी का अभियान छत्तीसगढ़ियों पर अभी भी उनके पारंपरिक आजादी को दर्शाता है। सहज उपलब्धता,किसी बच्चे के अचानक गड्ढे में गिर जाने को लेकर बड़ी बारीकी से जान बचाने का सफल रेस्क्यू ऑपरेशन,उनके संजीदगी पर प्रभाव छोड़ता है। सहज छत्तीसगढ के पारंपरिक त्योहारों पर ग्रामीणों संग नाचना,गाना या भंवरा,गेड़ी पर चढ़कर इतराना उनकी लोकप्रियता बन गई है,जिसे छत्तीसगढ़ की भावुक जनता खूब सराहने लगी है। गोबर व जैविक उत्पादों की खरीद,महिला स्व-सहायता समूहों को आर्थिक आजादी,किसानों को लाभांश देना,पत्रकारों की जमीन उपलब्धता आदि कल्याणकारी कदम कहीं फिर से बघेल को भूपेश बनाने में जनता अपना दिल न दे बैठे यह भी विचारणीय है।
भारतीय जनता पार्टी चेहरा बदल,विकल्प की तलाश में-
आगामी 2024 का लोकसभा चुनाव का रास्ता भी 23 की विधानसभा परिणामो से होकर गुजरेगा,इसलिए केंद्र सरकार व भाजपा संगठन किसी भी हाल में राज्य में सत्तासीन होना चाहेगी। सर्वे कर लिया गया अंदरूनी फैसला पार्टी के नाराज चेहरों को साधने की जो कोशिश की जा रही है,उससे लगता है कि अब भाजपा के पुराने चेहरों पर पार्टी का भरोसा कम हो गया है। भाजपा ने प्रदेश अध्यक्ष की कमान ऐसे समय मे नए व्यक्ति को दी है जब चुनाव सिर पर है,अभी टीम बनाने में समय लगेगा,आदिवासी चेहरे को बदलकर ओबीसी चेहरे को कमान देना कहीं उलट न पड़ जाए यह भी ध्यान देना होगा,हालांकि नेताप्रतिपक्ष के रूप में आदिवासी मास्क जरूर पहना दिया गया है,परन्तु उम्रदराज अनुभवी चेहरों का विश्वास भी मन से पार्टी की तरफ होना जरूरी है। क्योंकि भूपेश बघेल विरोधी खेमे में भी सेंध करने की कला कौशल में पारंगत हैं,यह भी ध्यान देना होगा भाजपा को।
तो ऐसे में क्या कांग्रेस ही फतह करेगी आगामी विधानसभा छत्तीसगढ़-
हालांकि राजनीति है,कब किधर गेम फिट हो जाएगा यह निष्ठा,धर्म व नैतिकता से परे है,जिसमे भाजपा भी निपुण रणनीतिक चाणक्य चातुर्य पार्टी है,यह सर्वविदित है। क्योंकि पार्टी के पास राजनीति के चाणक्य कहे जांद वाले अमित शाह जो हैं। कुल मिलाकर छत्तीसगढ़ को भेदने में अब राज्य संगठन उतना प्रभावी नही होगा जितना कि केंद्र संगठन . फिर भी अभी तक यही लगता है कि भूपेश की विश्वसनीयता छत्तीसगढ़ की जनता पर हावी है,डोर इतनी कमजोर नही है। छत्तीसगढ़ में छत्तीसगढ़ियों के स्वाभिमान को लेकर मैदान में उतरे भूपेश अब खांटी छत्तीसगढ़िया माने जा रहे हैं। लोकल बनाम बाहरी का भी नारा प्रदेश में खूब चला और कमोवेश यह नारा भी भूपेश को सरकार बनाने में मदद किया। भाजपा से ऊबी जनता ने कांग्रेस को 2018 की सत्ता सौंप दी थी। अब भाजपा की जोड़तोड़ की गणित को भी प्रदेश की जनता गौर से देख रही ही,स्वाभाविक है कि चुनाव के आते आते कई कांग्रेसी विधायकों या मन्त्रियों पर ईडी या सीबीआई की रेड भी पड़ सकती है। एन केन प्रकारेण इस बार भाजपा छत्तीसगढ़ को हथियाने में पुरजोर कोशिश करेगी। राजनीति में संभावना हमेशा बलवती रहती है। इधर टीएस बाबा भी महत्वपूर्ण भूमिका में देखे जा रहे हैं,जिन्हें भाजपा विभीषण के रूप में देख रही है। यदि ऐसा कुछ होता है तब सियासी मायने व राजनीतिक तेवर व समीकरण बदलते नजर आ सकते हैं।ऐसे में कांग्रेस को चक्रव्यूह तोड़ने वाले अर्जुन की तलाश रहेगी। बस्तर,सरगुजा व महानदी बेसिन परिक्षेत्र भगवा होगा या गांधीवादी झंडे को अपनाएगा यह सत्ता व विपक्ष की सक्रियता पर निर्भर करता है। हालांकि अभी तो पलड़ा सत्तापक्ष (कांग्रेस) का ही भारी है।