सच उजागर कर रहा’उप्र मुख्यमंत्री फेलोशिप योजना’का दूसरा पहलू
शुरुवाती चरणों मे इसे सौ विकासखंडों में लागू किया जाएगा,ताकि जनकल्याणकारी कार्यक्रमों को लोगों तक आसानी से पहुंचाया जा सके.
सच उजागर कर रहा’उप्र मुख्यमंत्री फेलोशिप योजना’का दूसरा पहलू
– सरकारी योजनाओं के कार्यान्वयन में आने वाली चुनौतियों और योजनाओं के प्रति नागरिकों के दृष्टिकोण का पता लगाने की क्यों आई नौबत?
लखनऊ। संजय शेखर मिश्र
हाल ही में उत्तर प्रदेश में ‘उप्र मुख्यमंत्री फेलोशिप योजना’ को मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने शुरू किया है। इस योजना को शुरू किये जाने के पीछे मुख्य कारण यह बताया गया है कि राज्य के ग्रामीण क्षेत्रों में युवाओं की ऊर्जा, प्रौद्योगिकी और नए विचारों का उपयोग कर पहले से चल रहे जनकल्याणकारी कार्यक्रमों को लोगों तक आसानी से पहुंचाया जा सके। साथ ही ऐसे कारकों की पहचान की जा सके जो जन योजनाओं का लाभ जरूरतमंद जनता तक नहीं पहुंचने दे रहे हैं। शुरुआती चरण में सूबे के चिन्हित सौ विकासखंडों में इस योजना को लागू किया जाएगा। लेकिन इसका दूसरा पहलू भी सामने आता है कि राज्य सरकार अंततः अब यह मान रही है कि वाकई सरकारी योजनाओं का लाभ जरूरतमंद लोगों तक अबाध रूप से नहीं पहुंच पा रहा है। ऐसा है तो यही कहा जा सकता है कि बहुत देर कर दी हुजूर आते आते…।
बहरहाल गरीब और वंचित जनता के लिए फिलहाल यह राहत की बात हो सकती है कि योगी सरकार ने अपने दूसरे कार्यकाल में ही सही, इस कड़वी सच्चाई को स्वीकार तो किया। लेकिन सवाल यह उठता है कि क्या वाकई में योगी सरकार और उप्र के सरकारी तंत्र को यह बिल्कुल नहीं पता है कि योजनाओं का शतप्रतिशत लाभ जरूरतमंद जनता तक आखिर क्यों नहीं पहुंच रहा है? यह तो बच्चा-बच्चा जानता है और इसका उत्तर तो गांव का सबसे अशिक्षित सबसे पिछड़ा व्यक्ति भी तपाक से दे देगा कि भैया संगठित भ्रष्टाचार ही इसका एकमात्र कारण है।
बावजूद इसके यदि योगी सरकार को इतनी सी बात पता करने के लिए शोधार्थियों की नियुक्ति इस नई योजना के तहत गांवों में करनी पड़ रही है तो यह गले उतरने वाली बात नहीं है।
इस योजना के तहत रिसर्च स्कॉलर्स या शोधकर्ताओं को विकासखंडों में तैनात किया जाएगा, ताकि वे जनता से बात कर यह पता लगा सकें कि सरकारी योजनाओं का लाभ जनता को क्यों नहीं मिल रहा है? मिल रहा है तो कितना? साथ ही ऐसी अनेक जानकारियां जुटाकर सरकार को दे सकें जिससे कि समस्या का समाधान निकाला जा सके। उत्तर प्रदेश सरकार इनको हर महीने तीस हजार रुपये पगार देगी।
तैनात किए गए शोधार्थी को अपने विकासखंड से सभी जानकारी जुटा कर मासिक प्रगति रिपोर्ट अपने सक्षम अधिकारी को सौंपनी होगी। इसमें शोधार्थी द्वारा नीति एवं योजना के कार्यान्वयन में आने वाली चुनौतियों और योजना के प्रति नागरिकों के दृष्टिकोण का उल्लेख किया जाएगा। त्रैमासिक प्रगति रिपोर्ट भी तैयार होगी। अंत में वार्षिक रिपोर्ट के आधार पर शोधार्थी द्वारा संपादित किए जाने वाले कामों का मूल्यांकन किया जाएगा। विचारणीय तथ्य यह है कि फेलोशिप कार्यक्रम की अवधि पूरी हो जाने के बाद सरकार इन शोधार्थियों को स्थाई सेवा या रोजगार प्रदान करने का आश्वासन नहीं दे रही है। यानी यह योजना युवाओं को स्थाई नौकरी या रोजगार देने के लिए नहीं बल्कि केवल इस बात की जानकारी जुटाने के लिए या कहें कि रिसर्च कराने के लिए है कि आख़िर उत्तर प्रदेश में जरूरतमंद जनता को सरकारी योजनाओं का लाभ सुलभ क्यों नहीं हो पा रहा है। या फिर हो भी रहा है तो उतनी तत्परता से क्यों नहीं हो रहा है। सरकारी विज्ञापन के अनुसार- इस योजना का फायदा खासकर रिसर्च या जानकारी जुटाने में होगा ताकि इसकी मदद से हम विकास को गति दे सकें। साथ ही ये युवा कई प्रकार के सुझाव भी देंगे और सरकारी योजनाओं के संचालन में आने वाली चुनौतियों का समाधान भी देंगे।
प्रयागराज जनपद में इस तरह का प्रयोग वर्ष 2016-17 में तत्कालीन डीएम संजय कुमार के नेतृत्व में स्वयंसेवी संस्था जनसुनवाई फाउंडेशन ने शुरू किया था। गांव-गांव में इसी प्रकार शोधकर्ताओं की फौज उतार कर और जनपंचायत लगाकर वंचित जनता के बीच 175 बिंदुओं पर विकास-मापी सर्वेक्षण किया जाता था और जनता उस दस्तावेज को सत्यापित करती थी।
उसका पंचनामा कर पंचायत की मोहर भी लगाई जाती। यह एक दस्तावेज गांव में रहने वाले वंचित वर्ग की दशा-दुर्दशा का श्वेत पत्र साबित होता। साथ ही इस बात की भी साक्ष्यांकित जानकारी प्रस्तुत करता कि इन गरीबों की दुर्दशा का दोषी कौन है। संस्था के समन्वयक एडवोकेट कमलेश मिश्रा से हमने पूछा कि आखिर तब भी समाधान क्यों नहीं निकल सका? उन्होंने बताया कि तब सपा सरकार थी और तत्कालीन डीएम संजय कुमार हमारे कार्यक्रम को लेकर उत्साहित थे, लेकिन सिस्टम की पोल-पट्टी खुलने से प्रशासनिक तंत्र असहज हो उठा। साथ ही अपनी नेतागीरी को फुस्स होता देख लोकल नेताओं ने इसे रोकने को पूरा ज़ोर लगाया। बावजूद इसके हमने संवैधानिक संस्थाओं, अदालत और आयोगों तक सच्चाई पहुंचाई, जिसका असर अब जमीन पर दिख रहा है। उप्र में अब ग्राम चौपाल योजना इसी का परिणाम है और अब यह शोध योजना भी। कमलेश मिश्रा का मानना है कि बावजूद इसके कोई समाधान नहीं निकलने वाला है क्योंकि जब नीचे से ऊपर तक पूरा तंत्र ही जानकर भी अनजान बने रहने में सिद्ध हो तो फिर क्या हो सकता है। भ्रष्टाचार के निर्मूलन के लिए वंचित और अशिक्षित समुदायों का जागरूक और सशक्त होना ही समस्या का एकमात्र समाधान है। इसके बिना कोई और उपाय नहीं है। इस वर्ग को जागरूक करने पर सर्वाधिक जोर दिया जाना चाहिए। उसे न केवल उसके अधिकारों के प्रति जागरूक बनाना चाहिए बल्कि भ्रष्टाचार के विरुद्ध भी उसे जवाबदेह बनाना आवश्यक है। इसके अलावा सरकारी योजनाओं का निष्पक्ष जमीनी आडिट कराया जाना चाहिए। यह वैसा नहीं हो जैसा कि सोशल आडिट के नाम पर ड्रामा किया जा रहा है। वंचितों के हलफनामे लेकर यह प्रक्रिया दर्ज हो। दंडात्मक कार्रवाई भी आवश्यक है। वंचितों को योजनाओं का लाभ न दिला पाने वाले डीएम पर संबंधित धाराओं में मुकदमा दर्ज कर जांच होनी चाहिए और दोषियों की संपत्ति राजसात कर उन्हें सेवा से बर्खास्त किया जाना चाहिए। बिना इन सुधारों के कुछ भी नहीं बदलेगा।
जब हम वंचितों से उनकी समस्या और सरकारी योजनाओं का हाल पूछते हैं तो उनका भाव कमोवेश वही निकल कर आता है जो कमलेश मिश्रा ने बताया। दरअसल पंचायती राज व्यवस्था को पूरे सरकारी तंत्र ने संगठित भ्रष्टाचार का साधन बना दिया है। प्रधान और ग्राम सचिव से लेकर प्रशासन तक एक सिस्टम विकसित कर लिया गया है कि सरकारी योजनाओं को पलीता कैसे लगाना है और मिल बांट कर गरीबों को शिकार कैसे बनाना है। यह कोई नई बात नहीं है।
भूतपूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय राजीव गांधी खुद यह बात कह चुके थे कि एक रुपये में से दस पैसा ही गरीब तक पहुंचता है। यानी उन्हें पता था कि गड़बड़ी कहां है। लेकिन तीन दशक बाद योगी सरकार यह जानने के लिए शोधार्थियों को मैदान में उतारे तो बेतुका और अटपटा मालूम पड़ता है। शोधार्थियों से शोध कराने के बजाय न्यायिक जांच कराई जानी चाहिए और निष्पक्ष जांच टीम गांवों के वंचित समुदायों तक पहुंच कर उनके बयान दर्ज करे कि उन्होंने किस किस योजना के लिए किस किस कर्मचारी-अधिकारी को कब कब कितना पैसा दिया? आवास योजना के लिए दिया? शौचालय के लिए दिया? राशन के लिए? बीमा के लिए? पेंशन के लिए? मनरेगा के लिए? साबित करने की आवश्यकता भी नहीं है कि दिया, क्योंकि यदि गरीब आज भी योजनाओं से वंचित है तो यह इस बात का पुख्ता प्रमाण है कि उसका हक हड़पा गया है।
यद्यपि मुख्यमंत्री फेलोशिप योजना देश में नई पहल नहीं है। अन्य राज्यों में भी इससे पहले यह योजना लाई जा चुकी है। उद्देश्य वही है कि शोधकर्ताओं को जनता तक पहुंचाकर जानकारी जुटाई जाए ताकि सुशासन की चुनौतियों का समाधान खोजा जा सके। लेकिन सवाल यह है कि क्या ऐसी योजनाएं समस्या का समाधान हो सकती हैं।