छत्तीसगढ़ में बिन खेवैया,कैसे होगी पार नैया !
रायपुर- बिन खेवइया कैसे पार लगेगी नैया ! जी हां, छत्तीसगढ़ में 15 साल भारतीय जनता की पार्टी की सरकार रहने के वावजूद भी पिछले विधानसभा में महज 15 सीट पाकर सिमट जाना देश की नम्बर 1 सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी के लिए शर्मनाक स्थिति निर्मित हुई थी। रमन सरकार के लगातार तीन पारी खेलने के बाद भाजपा की यह दुर्गति शीर्ष नेताओं के गले नही उतर रही है। एक ओर जहां विश्व के लोकप्रिय दमदार नेता की केंद्र में सरकार हो और उसी पार्टी के 15 वर्षीय सत्ताधारी नेताओं को जनता आउट कर दे यह बात हजम नही होती । भारतीय जनता पार्टी की स्वच्छ छवि व हिंदुत्वादी प्रखर राजनेता जो देश के प्रधानमंत्री भी हैं उनकी छवि पर छत्तीसगढ़ 2018 विधानसभा चुनाव एक बदनुमा दाग साबित हुआ था। जिनकी छवि की छत्रछाया में ऐरे गैर छोट भैया किस्म के नेता भी आज बड़े नेता बन बैठे उनकी छवि छत्तीसगढ़ में नही चल पाई क्यों? यह आदिवासी बाहुल्य राज्य में एक यक्ष प्रश्न की तरह भाजपा के शीर्ष नेताओं को निरुत्तर कर देता है। (जनमत संग्रह पर आधारित है यह लेख)
छत्तीसगढ़ में चाउर वाले बाबा का तमगा लेकर इतराने वाले पूर्व मुख्यमंत्री रमन सिंह की 15 वर्षीय सरकार को जनता ने एक सिरे से क्यों नकार दी यह भी बड़ा प्रश्न है। आइये जानते हैं ऐसा क्या फेलियर रहा छत्तीसगढ़ भाजपा संगठन का जो 2018 में नही खिला सका कमल ! जनमत संग्रह के आधार पर हम यह जानकारी साझा कर रहे हैं,लोगों से बातचीत करने पर आधारित है यह विश्लेषण!!
तत्कालीन सरकार की मनमानी – तत्कालीन सरकार के मुखिया रमन सिंह पहली सरकार में तो अच्छा कार्य किये,जनता की जमीनी जरूरतों को पूरा करने व राज्य के विकास में खूब ध्यान दिए ,जिससे सरकार को विकास वाली सरकार का तमगा मिला उसका खिताब जनता ने दूसरी पारी जीता कर दिया। दूसरी पारी में सिंह साब को हाथ से नही बल्कि चम्मच से खाने की कुछ लालसा हुई जिससे अच्छे लोग कुछ दूरी तय करने लगे जहां सरकार की मनमानी भी उजागर होनी शुरू हो गई,लेकिन तीसरी पारी में जब पुनः सत्तासीन हुए तब पूरी तरीके से हाथ से खाने में भरोसा खो बैठी रमन सरकार फुल स्पीड से चम्मच पर ही स्वाद लेना शुरू कर दिया,नतीजा यह रहा कि चौथी पारी खेलने के पहले ही आउट हो गए। जनता यह बखूबी समझ गई की अब डॉक्टर साब गरीबो का इलाज न करके बड़े लोगों के घरों के डॉक्टर बन गए हैं। जनता है सब जानती है,यह पहला कारण बना हार का।
घिसे पीटे पुराने चेहरों पर ही दांव आजमाना – जब चुनाव आता है तब चुनावी मुद्दा राजनीति का हिस्सा बन जाता है और बैनर पोस्टर की राजनीति शुरू हो जाती है। बड़े नेताओं की खिदमत में स्वागत में टिकट पाने का पोस्टर पॉलिटिक्स की धूम मचती है। यही धूम शीर्ष संगठन में बैठे लोगों की नजर धूमिल कर देती है,और यही हुआ भी। जो बेचारे जमीनी कार्यकर्ताओं ने मीटिंगों में भीड़ जुटाने,दरी, झंडा पोस्टर लगाकर पार्टी की मन से सेवा किया वे सब पूंजीवादी चेहरों के आगे धूलधूसरित कर दिए गए। जिनकी छवि जनता के बीच पकड़ व विश्वास की रही उन्हें दरकिनार कर पैराशूट से उतरे एवं सत्ता का स्वाद चखने वाले धुरन्धरों को टिकट देकर जनता की पसंद को दरकिनार कर दिया गया। जिसका नतीजा यह रहा कि जो कार्यकर्ता बड़ी उम्मीद से पार्टी की सेवा की वही संगठन से भीतर भीतर दूरी बनाते हुए बे मन से महज खाना पूर्ति करते हुए कंडीडेट के साथ भीड़ का हिस्सा बनकर रह गए। टिकट बंटवारे को लेकर उभरा मनमुटाव जनता को रास नही आया और वह जनता चाउर के स्वाद को भूल गई। इस प्रकार से संगठन की मनमानी व उदासीनता को दूसरा कारण समझा जाना चाहिए।
2023 में 2018 से उलट हो सकती है चुनावी रणनीति- 2023 के विधानसभा चुनाव के मद्देनजर भाजपा ने कुछ अलग तैयारी शुरू कर दी है। पार्टी की राज्य प्रभारी ने इसका संकेत कुछ दिन पहले ही दे दिया है। इस बार कोई भी गलती भाजपा शीर्ष नेतृत्व न दुहराते हुए जनता के बीच जाकर उनकी पसंद व जनाधार वाले नेता के नाम की लिस्ट बनानी शुरू कर दी है। शीर्ष नेतृत्व की ओर से कुछ सर्वेयर सर्वेक्षण के कार्य शुरू किया है।जनता के बीच गांव गांव ,शहर के गली मोहल्लों,पान ठेलों व सामाजिक कार्यकर्ताओं से उनकी पसंद व जनाधार वाले जमीनी लीडरों के नाम को जानना व सूचीबद्ध करना जारी रखा है। इस बार का चुनाव यशस्वी प्रधानमंत्री के कार्य व उनकी लोकप्रियता पर ही लड़ने का विकल्प हो सकता है। इसके हिंट दिए जा चुके हैं। इस बार लगभग 60 से 70 प्रतिशत टिकट नए चेहरों को व पार्टी से जुड़े सामाजिक चिंतकों को दिए जाने की संभावना दिखती नजर आ रही है। यदि ऐसा ही पार्टी करेगी तो कुछ चमत्कार हो सकता है। एक ओर भाजपा में स्थानीय नेताओं की गुटबाजी साफ झलकती है तो वहीं दूसरी ओर कांग्रेस पार्टी की सरकार के मुख्यमंत्री की लोकलवाद व दमदार छवि भी जनता पर हावी नजर आती है। मुख्यमंत्री भूपेश बघेल कोई कोर कसर नही छोड़ रहे हैं जनता से दूरी का। संवेदनशीलता का परिचय देते हुए जिस प्रकार से उन्होंने गाँव गाँव जाकर जनसंवाद असरकारी कार्यक्रम आयोजित किया और बोरबेल में फंसे 11 वर्षीय राहुल साहू के बचाव में जो रणनीति व संजीदगी अपनाया है उसकी चर्चा आमजनता पर गहरा छाप छोड़ गया है। इसको भाजपा कैसे दूर कर पायेगी उसका हल भी भाजपा नेताओं को ढूढना पड़ेगा।
नए व बेदाग चेहरों को टिकट देकर पाटी जा सकती है खाई- यदि भारतीय जनता पार्टी का शीर्ष संगठन पार्टी के कर्मठ नए कार्यकर्ताओं को टिकट देकर चुनावी मैदान में उतारती है तो एक बार बात बन सकती है। लगभग यही सूत्र अपनाने की तैयारी भी पार्टी कर रही है। सूत्रों की माने तो पार्टी इस बार कई पुराने व वरिष्ठ चेहरों को बदलकर नए चेहरों पर दांव आजमाएगी । आर एस एस के स्वयंसेवक भी इस सूची में सूचीबद्ध हो सकते हैं। संगठन में बड़ा फेरबदल होने की संभावना भी बन रही है जो कि चुनाव जीतने का अहम फैसला हो सकता है।
राष्ट्रपति चुनाव भी कारगर साबित होगा- एनडीए की तरफ से बनाई गई राष्ट्रपति उम्मीदवार द्रोपदी मुर्मू भी एक सकारात्मक कदम राज्य के आदिवासियों को जोड़ने का होगा। प्रथम आदिवासी महिला को राष्ट्रपति का उम्मीदवार बना कर भाजपा ने आदिवासियों का सम्मान बढाने का जो कार्य किया है,वह एक नई राजनीतिक लाभप्रद पारी है जिसका लाभ आदिवासी बाहुल्य राज्य छत्तीसगढ़ का भाजपा को मिलना स्वाभाविक है। अब देखना यह होगा कि इसको पार्टी कितना भुना पाने में सफल होगी। हालांकि इस बार का चुनाव शीर्ष नेतृत्व के चेहरे पर लड़ा जाना स्वाभाविक है। केंद्र सरकार की योजनाओं व क्रियान्वयन पर,लोकप्रियता पर और मौजूदा सरकार की चिन्हांकित विफलताओं पर लड़ेगी भाजपा।