गरीबी को मुंह चिढ़ा रहे धर्म की दुकानों पर आस्था के खरीदार
गरीबी को मुंह चिढ़ा रहे धर्म की दुकानों पर आस्था के खरीदार
लखनऊ – सोशल मीडिया पर एक वीडियो आया है, जिसमें एक बेटी वृंदावन में भागवत कथा सुनाने वाले एक ‘फाइव स्टार’ महाराज से गुहार लगाते कह रही है कि महाराज मेरे पापा और भाई का निधन हो गया है और आप कहते हैं कि मृतकों के उद्धार को भागवत कथा करानी चाहिए। किंतु मेरी मम्मी की नौकरी छूट गई है और हमारे पास इतना पैसा नहीं है कि हम कथा करा सकें। इसलिए मैं आपके यहां आई हूं, लेकिन यहां बताया गया कि सात लाख रुपए लगेंगे और पोथी बैठाने के 21 हजार रुपए…। इस पर महाराज ने बेटी से कहा कि तब यहां कथा न कराकर अपने घर में ही निकट के किसी पंडित से कथा करा लो। आप कोई भी अनुष्ठान कराओगे तो कुछ तो पैसा खर्च करना ही पड़ता है…। बेटी ने जिज्ञासावश पूछा कि क्या घर पर कथा कराने से मेरे पापा और भाई का उद्धार हो जाएगा…? महाराज ने उत्तर दिया कि हां कथा कहीं भी कराओ भागवत जी सभी का उद्धार करते हैं…।
इस प्रसंग ने तीन बातें उजागर कर दीं। पहली, ऐसे तमाम ‘फाइव स्टार’ महाराज जो भागवत कथा सुनाने की फीस लाखों रुपए में वसूल रहे हैं, क्या वह वाकई में आध्यात्मिक विचारक या संत या महात्मा या संवेदनशील मनुष्य हैं? या कि धर्म की फाइव स्टार दुकानें भर चला रहे हैं। यह ठीक उसी प्रकार है जैसे कि ठेले पर पांच रुपए में मिलने वाली चाय फाइव स्टार होटल में पांच सौ रुपए में मिलती है। क्या भागवत कथा भी इसी तर्ज पर बिकने वाली कोई चीज है? आस्था के नाम पर इस प्रकार की दुकानें चलाना क्या धर्म और संस्कृति की हानि नहीं है? भगवान का दर तो सभी के खुला होना चाहिए, क्या गरीब और क्या अमीर।
दूसरी बात, यह भ्रान्ति किसने फैलाई है कि मृत आत्मा की शांति के लिए भागवत कथा सुनना आवश्यक है? सनातन ज्ञान तो आत्मा को शुद्ध, नित्य, अविनाशी और पूर्ण बताता है। तब इस पर जागरूकता क्यों नहीं उत्पन्न की गई, ताकि कर्मकांडों के नाम पर लोगों को यूं लूटा न जा सके?
तीसरी बात, श्रद्धा, आस्था और विश्वास व्यक्ति की अपनी समझ पर आधारित तथ्य हैं। इन पर किसी अन्य का किसी भी प्रकार का नियंत्रण नहीं होना चाहिए और न ही इन्हें बाध्यता का विषय ही बनाया जाना चाहिए। धर्म और संस्कृति की समता व सर्वसुलभता के लिए उन धर्म गुरुओं को हतोत्साहित किया जाना आवश्यक है जो आस्था को कम-ज्यादा दामों पर बेचते हैं। बहरहाल, महाराज ने एक बात सौ फीसदी सच कही है कि भागवत कथा घर पर कराएं या खुद ही पढ़ लें, ज्ञान वही मिलेगा जो भागवत में लिखा है। तब ऐसे फाइव स्टार कथावाचकों और इन्हें सुनने वाले फाइव स्टार श्रोताओं की आलीशान आस्था को आप क्या कहेंगे? श्रद्धा या कि भोग?
वृंदावन के उक्त धर्म गुरु यदि इस बेटी के दुख और दशा को समझकर उसकी निश्शुल्क सहायता कर देते तो माना जा सकता था कि वह दुकान नहीं चला रहे हैं। और यदि दुकान चलाना उनके लिए आजीविका है तब भी यदि एक दुखी बेटी की वह सहायता कर देते तो उन्हें लाखों रुपए का घाटा नहीं हो जाता वरन उनके संत होने का पुख्ता प्रमाण जनता के सामने उपस्थित होता। लेकिन वह इसमें पूरी तरह फेल हो गए। प्रश्न यह उठता है कि क्या ऐसे धर्म गुरुओं की नीयत और प्रवृत्ति पर संदेह नहीं किया जाना चाहिए?
बीते दशक में अनेक बाबाओं की काली करतूतें सामने आने और इन्हें सलाखों के पीछे डाले जाने के बाद देश में चलने वाली धर्म की अनेक फाइव स्टार दुकानों का धंधा चौपट हो गया। आसाराम, राम रहीम, राधे मां और ऐसे कुछ और लोगों को जनता ने भगवान मान लिया था। इनकी सच्चाई उजागर होने पर ऐसा लगा कि जनता ने सबक सीख लिया होगा, लेकिन ऐसा हुआ नहीं। मान लें कि जनता को अच्छे-बुरे की समझ है, लेकिन होती तो क्या आसाराम और राम रहीम उसे ठग पाते? सच यह है कि धर्म और संस्कृति की जकड़ में उलझी जनता भोली है। वह आज भी ठगे जाने को तैयार है।
(भागवत कथाओं में जुटने वाली भीड़ का प्रतीकात्मक चित्र)
ठगी का यह कारोबार लुभाऊ प्रचार तंत्र की बदौलत दिन दूना और रात चौगुना हो जाता है। पहले टीवी पर होता था और आज मोबाइल पर भी हो रहा है। प्रवचन के नाम पर कुछ भी बोलो और फेसबुक पर डाल दो। भारत की भोली जनता आज भी टीवी मैनिया का शिकार है। टीवी पर संगीत मंडली की मधुर धुनों के बीच सजे-धजे बाबा का मंचन और अभिनय देख भोलीभाली जनता बाबा को सुपर स्टार की भांति सेलीब्रिटी मान बैठती है और बाबा की दुकान चल पड़ती है। याद कीजिए कि आसाराम से लेकर राम रहीम तक ने मजबूत प्रचारतंत्र के बूते ही कितनी भीड़ जुटाई। और तो और बड़े बड़े नेता, मंत्री भी इस भीड़ का लाभ उठाने के लिए इन बाबाओं के दर पर मत्था टेकने लगे। राम रहीम तो खुद को इतना बड़ा सेलीब्रिटी समझने लगा कि खुद हीरो बन अपनी फिल्में बनाने लगा। धन्य है भारत की जनता! इतना सब झेलने के बाद भी जनता ने सबक नहीं सीखा है। धर्म की दुकानें बंद नहीं हुई हैं और न भीड