नेशनलराजनीति

आजादी के 75 साल अमृत महोत्सव में भी, 47 साल पुरानी इमरजेंसी कंपा देती है रूह ! यदि इंदिरा की जगह मोदी होते तो क्या करते?

तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा का तानाशाही रवैया लोकतंत्र पर हिटलरशाही थी? या हालात !!

नेशनल डेस्क – आपात काल का 47 वर्ष पूरा हो गया लेकिन आज भी उसे देश के लोकतंत्र के काले अध्याय के रूप में याद किया जा रहा है। आखिर ऐसा क्या हुआ था उस इमरजेंसी दौर में जो आज भी याद किया जाता है। इमरजेंसी के आदेश पर तत्कालीन राष्ट्रपति फ़ख़रुद्दीन अली अहमद ने दस्तखत कर अपनी सहमति जता दी और प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने आपातकाल को देश के सामने लाकर खड़ा कर दिया।

25 जून 1975 को इमरजेंसी लगाने का एलान तत्कालीन प्रधानमंत्री ने किया। आधीरात को उस समय के राष्ट्रपति का उस प्रस्ताव पर हस्ताक्षर होता है और कार्रवाई शुरू होती है .लायन आर्डर बिगड़ने के आदेश जारी कर दिए जाते हैं।

आज जब हमारा देश स्वाधीनता का अमृत महोत्सव मना रहा है मतलब हमारा भारत अपनी लोकतंत्र की यात्रा का 75 वां वर्ष पूर्ण करने जा रहा है,और इसी अमृत महोत्सव में जुड़ा है एक काला अध्याय उस आपातकाल का जिसमे सभी डरे व सहमे हुए हैं। वे आवाज़ें भी दफ़्न हैं जो डरी व सहमी सी थीं। उस वक्त के हालात ही कुछ ऐसे थे कि लोकतंत्र की आत्मा को कुरेद कुरेद कर खत्म किया जा रहा था। तत्कालीन समय मे लोकतंत्र के लिए उठने वाली हर आवाज को निर्ममता से कुचक दिया गया था। इस दौर में लगभग 25 हजार लोग मीसा (मेंटेनेंस ऑफ़ इंटरनल सिक्योरिटी एक्ट) यानि आन्तरिक सुरक्षा अधिनियम के तहत बन्द किये गए और एक लाख से ज्यादा लोगों ने जेल की यातनाएं झेली थीं।

यह दौर देश पर लगा एक ग्रहण माना जाता है जिसमें तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के तानाशाही चरित्र का प्रकटीकरण था।

पत्रकारों के कलम पर भी था तानाशाही प्रहार- पत्रकारों के कलम पर बंदिशें थीं पहरा व तानाशाही का प्रहार था। इमरजेंसी का निरंकुश डंडा भारतीय मीडिया के दफ्तरों पर भी चला,दफ्तरों की लाइटें काट दी गईं। अखबार छपने नही दिया गया। जो अखबार सरकार की जी हुजूरी में न होकर ,तत्कालीन सरकार के खिलाफ लिख रहे थे,उनके प्रकाशन पर पाबंदी लगा दी गई थी।

26 जून 1975 को हुई कैबिनेट की बैठक में इंदिरा ने “मीडिया” के संबन्ध में व्यापक नीति निर्धारित की जिसमे मुख्यरूप से प्रेस परिषद को समाप्त करके सभी प्रेस समितियों को मिलाकर एक करने विज्ञापन नीतियों का पुनर्निर्धारण असहमति व्यक्त करने वाले सभी पत्रकारों को दी गई सरकारी आवास सुविधा वापस लेने आदि की चर्चा की गई थी। इसी मीटिंग में सेंसरशिप को पूरे देश मे कड़ाई से लागू करने का अनुमोदन किया गया।

 इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इंदिरा गांधी के चुनाव को किया शून्य करार दे दिया था,सत्ता खो जाने के डर से उठाया कदम देशवासियों पर पड़ा भारी- 

यह समय ऐसा था जिसकी कल्पना भी कभी भारतवासियों ने नहीं की थी. 25 जून, 1975 रात 12 बजे मतलब 26 जून को 00:00 बजे तत्‍कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी (आपातकाल) की घोषणा की थी. आकाशवाणी पर प्रसारित अपने संदेश में इंदिरा गांधी ने कहा, जब से मैंनेआम आदमी और देश की महिलाओं के फायदे के लिए कुछ प्रगतिशील कदम उठाए हैंतभी से मेरे खिलाफ गहरी साजिश रची जा रही थी.” यह कहते हुए इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी की घोषणा कर दी थी. इमरजेंसी की घोषणा के बाद अनुच्छेद 352 के तहत सभी राज्यों के विधानसभा चुनाव और संसदीय चुनाव स्थगित कर दिए गए तथा नागरिक अधिकारों को भी सीमित कर दिया गया था. संविधान के इसी अनुच्छेद के कारण इंदिरा ने असीम शक्तियां हासिल कर ली थीं.

इसकी जड़ में 1971 में हुए लोकसभा चुनाव का था, जिसमें उन्होंने अपने मुख्य प्रतिद्वंदी राजनारायण को पराजित किया था। लेकिन चुनाव परिणाम आने के चार साल बाद राज नारायण ने हाईकोर्ट में चुनाव परिणाम को चुनौती दी। 12 जून, 1975 को इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायाधीश जगमोहन लाल सिन्हा ने इंदिरा गांधी का चुनाव निरस्त कर उन पर छह साल तक चुनाव न लड़ने का प्रतिबंध लगा दिया। और श्रीमती गांधी के चिर प्रतिद्वंदी राजनारायण सिंह को चुनाव में विजयी घोषित कर दिया था।

राजनारायण सिंह की दलील थी कि इन्दिरा गांधी ने चुनाव में सरकारी मशीनरी का दुरुपयोग किया, तय सीमा से अधिक पैसा खर्च किया और मतदाताओं को प्रभावित करने के लिए गलत तरीकों का इस्तेमाल किया। अदालत ने इन आरोपों को सही ठहराया था। इसके बावजूद श्रीमती गांधी ने इस्तीफा देने से इनकार कर दिया। तब कांग्रेस पार्टी ने भी बयान जारी कर कहा था कि इन्दिरा गांधी का नेतृत्व पार्टी के लिए अपरिहार्य है।
इसी दिन गुजरात में चिमनभाई पटेल के विरुद्ध विपक्षी जनता मोर्चे को भारी विजय मिली। इस दोहरी चोट से इंदिरा गांधी बौखला गईं। इन्दिरा गांधी ने अदालत के इस निर्णय को मानने से इनकार करते हुए सर्वोच्च न्यायालय में अपील करने की घोषणा की और 26 जून को आपातकाल लागू करने की घोषणा कर दी गई।

उस वक्त अटल बिहारी बाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी,मधु दण्डवते व श्याम नंदन मिश्र संसदीय समिति के बैठक में भाग लेने बैगलोर गए हुए थे,उन्हें वहीं घेर लिया गया था। 25 जून 1975 से 21 मार्च 1977 तक चला इमरजेंसी का दौर आज भी रूह कंपा देने वाला लगता है। वरिष्ठ पत्रकार ए कुमार ने कहा कि वह दौर भारतीय लोकतंत्र का काला अध्याय था जो अब भी याद आने पर कंपकपा देता है।

आइये!अब यदि तुलनात्मक विचार करें – सच को सच की तरह 

 यदि इंदिरा की जगह उस वक्त मोदी होते तो क्या करते ?
चुने गए प्रधानमंत्री को जिस तरह से गलत कानूनी दावपेच में फंसाकर निर्वाचन रद करा दिया गया था, क्या वह उचित था? क्या आज मोदी या शाह जब चुनावी रैलियों में जुटे रहते हैं तब सरकारी मशीनरी का दुरुपयोग नहीं होता है? सुरक्षा से लेकर व्यवस्था तक, सबकुछ तो सरकारी मशीनरी संभालती है। लेकिन इंदिरा गांधी को सिर्फ इसलिए सजा दे दी गई कि उन्होंने अपने लोकसभा चुनाव प्रचार में अपने सरकारी सहायक की थोड़ी बहुत सहायता ली। यह उस नेता और प्रधानमंत्री के साथ घोर नाइंसाफी थी, जिसने महज छह साल पहले ही पाकिस्तान जैसे दुश्मन को भीषण युद्ध (1971) में न केवल धूल चटाई बल्कि उसके दो टुकड़े कर डाले। भारत को यह बहुत ही बड़ी और ऐतिहासिक राहत दिलाने वाला घटनाक्रम था। इसे जिस दमदारी से उन्होंने झेला, वह आसान नहीं था। वह भी तब जब पिछले ही दशक में भारत चीन से बड़ा युद्ध हारा था (1962) और पाकिस्तान का हमला झेला था (1965)। यानी यह वह दौर था जब दस साल में भारत को एक के बाद एक तीन युद्ध झेलना पड़ा था। वह भी भीषण युद्ध। अनुमान लगाया जा सकता है कि देश के अंदरूनी और बाहरी हालात तब कितने कठिन दौर में थे। ऐसे में जब देश को अंदर और बाहर से मजबूत बनाने की बेहद सख्त जरूरत थी, तब देश के अंदर मौकापरस्त राजनीति की कोई गुंजाइश नहीं होनी चाहिए थी। लेकिन मौकापरस्तों ने ठीक वही समय चुना जब देश बेहद कमजोर दौर से जूझ रहा था। ऐसा माना जाता है कि इंदिरा गांधी यदि तब इमरजेंसी लगाकर देश की सरकार को स्थिर रखने में चूक जातीं तो देश को इसकी बड़ी क़ीमत चुकानी पड़ती। बौखलाया पाकिस्तान तैयार बैठा था। चीन भी घात लगाए था। और बावजूद इसके कि इंदिरा ने तब देश को स्थिरता देने में कोई कसर नहीं छोड़ी किंतु दो-तीन साल के भीतर ही पंजाब जल उठा। दुनिया जानती है कि पंजाब को अलग देश बनाने की कितनी खतरनाक चाल देश के दुश्मनों ने तब चली थी। वह इंदिरा ही थीं, जिनके बूते दुश्मन के मंसूबे कामयाब नही हो पाए। नहीं तो पंजाब हाथ से गया था। लेकिन मौकापरस्तों को यह सब सुनहरे मौके की तरह दिखाई दिया। ऐसा न होता तो वह तब देश को कमजोर करने वाला आंदोलन न छेड़ते। कल्पना भर कीजिए कि मोदी काल में यदि पाकिस्तान या चीन से युद्ध हो और उसके बाद तब जैसा टकराव चरम पर चले और ठीक तभी देश में मोदी के खिलाफ कांग्रेस व अन्य दल वैसा ही विरोध करने लग जाएं, अन्ना आंदोलन जैसा आंदोलन छेड़ दें, कोट केस में उलझा दें, तब मोदी क्या करेंगे? देश की मजबूती तब उनकी प्राथमिकता होगी या इस्तीफा दे देंगे? अंत में यह कि देश की जनता को यदि इंदिरा का तब आपातकाल लगाना गलत लगा होता, तो इंदिरा को वह दोबारा प्रधानमंत्री कभी न चुनती। इंदिरा की लोकप्रियता जरा भी नहीं घटी थी बल्कि बढ़ी थी। उनके निधन पर देश शोक में डूब गया था। लिहाजा, इमरजेंसी केवल उन लोगों के लिए सबक थी जो मौके की राजनीति कर रहे थे‌।

 

 

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